Sunday, October 4, 2020

शरद ऋतुचर्या: स्वस्थ आयुर्वेद जीवनशैली Ayurveda Lifestyle regime in Autumn Season

 शरद ऋतुचर्या: स्वस्थ आयुर्वेद जीवनशैली

A Healthy Ayurveda Lifestyle regime for healthy Body - Mind and Soul...!

Sharad ritu


        जिस तरह से बाहरी वातावरण मे ऋतुए बदलती रहती है वैसे ही हमारे शरीर मे भी बदलाव आते रहते है । आयुर्वेद के लोकपुरुष सिद्धांत के अनुसार जो हमारे भीतर है वही बाहर प्रकृती मे भी है । बाह्य बदलावों का सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है । जिस तरह पेड़ पौधे वातावरण के अनुसार अपने आप मे बदलाव लाते है बिलकुल वैसे ही हमे भी स्वस्थ जीवन के लिए जीवन शैली मे बदलाव लाने जरूरी होते है । इसलिए आयुर्वेद के अनुसार पुरानी ऋतु की दिनचर्या छोड़कर हमे नयी आनेवाली ऋतु की दिनचर्या का अभ्यास शुरू करना चाहिए । जिससे शरीर और वातावरण के बदलाव को संतुलित किया जा सके । आयुर्वेद मे इसीलिए ऋतुचर्या के अध्याय लिखे गए हैं । जहां पर विविध ऋतु अनुसार आयुर्वेदीय जीवनशैली का वर्णन मिलता है । ताज्जुब की बात तो यह है की आज से हजारों साल पहेले लिखी हुई यह जीवनशैली आज के मापदंडो पर भी सत्य साबित होती हुई नजर आती है ।  

        वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु का आगमन होता है । भारतीय कलेंडर के मुताबिक शरद ऋतु भाद्रपद से लेकर कार्तिक माह तक देखि जाती है । जो अगस्त से लेकर ओक्टोबर तक प्रायः देखने मिलती है । समान्यतः यह समय मे श्राद्ध, नवरात्रि, विजयादशमी और शरद पुर्णिमा जैसे त्योहार हम मनाते है ।

अथर्ववेद 


जीवेम शरदः शतम्अथर्ववेद का मंगल श्लोक :

        कई बार हमने सुना होगा की किसी के जन्मदिन पर बुज़र्गों द्वारा जीवेत शरद: शतम -इस तरह का आशीर्वाद दिया जाता है। यह अथर्ववेद से लिया हुआ सूक्त है। हम में से अधिकाँश लोग शायद यह जानते होंगे कि आयुर्वेद भी अथर्ववेद का ही एक उपवेद है अतः यह भी एक वैदिक ग्रन्थ है जिसमें सुख पूर्वक सौ एवं उससे अधिक वर्ष तक जीने की कामना की गयी है । अथर्ववेद की 19 वें खंड के 67 वें सूक्त में ऐसे ही एक मंत्र का वर्णन है जिसे जानना एवं समझना आयुर्वेद को जानने एवं समझने के लिए आवश्यक है :

     

पहला सूक्त :पश्येम शरदः शतम् ।।।।

        अर्थ: हम सौ शरदों को देखें अर्थात सौ वर्षों तक हमारी नेत्र इन्द्रिय स्वस्थ रहे ।

        दूसरा सूक्त :जीवेम शरदः शतम् ।।२।।

      अर्थ : हम सौ शरद ऋतु तक जीयें यानि हम सौ वर्ष तक जीयें।

        तीसरा सूक्त : बुध्येम शरदः शतम् ।।३।।

      अर्थ : सौ वर्ष तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे अर्थात मानसिक तौर पर सौ वर्षों तक स्वस्थ रहे ।

        चौथा सूक्त :रोहेम शरदः शतम् ।।४।।

       अर्थ: सौ वर्षों तक हमारी वृद्धि होती रहे अर्थात हम सौ वर्षों तक उन्नति को प्राप्त करते रहे ।

        पांचवा सूक्त : पूषेम शरदः शतम् ।।५।।

       अर्थ : सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें अच्छा भोजन मिलता रहे ।

        छठा सूक्त : भवेम  शरद : शतम् ।। ।।

       अर्थ : हम सौ वर्षों तक बने रहे । यह दूसरे सूक्त की पुनरावृति है ।

        सातवाँ सूक्त : भूयेम शरद: शतम् ।।।।

        अर्थ : सौ वर्षों तक हम पवित्र बने रहें ।

        आठवां एवं अंतिम सूक्त : भूयसी शरदः शतात ।।।।

        अर्थ : सौ वर्षों के बाद भी ऐसे ही बने रहे ।

अर्थात अथर्ववेद का यह मन्त्र ईश्वर से सुखायु एवं दीर्घायु की कामना करने का मंगलकारी मन्त्र है ।

आशीर्वाद 

आइये जानते है क्यो “जीवेम शरदः शतम्” कहा जाता है :

        वर्षाऋतु समाप्त होते-होते सूर्य की प्रखर किरणें धरती पर पडने लगती हैं । तब शरद ऋतु का आरंभ होता है । वर्षाऋतु में निरंतर ठंडे वातावरण से हमारा शरीर मेल खाया होता है । शरद ऋतु का आरंभ होने पर गर्मी के बढने से स्वाभाविक रूप से पित्तदोष बढता है और पित्त रोग की बीमारियाँ ज्यादा होती है । शरद ऋतु मे सब्जियाँ ज्यादा बनती है किन्तु बारिश का पानी पी कर वे कृमि युक्त अवम नमक की मात्र उसमे बढ़ जाती है । जिससे वे विषैली बन जाती है इसलिए उन्हे खाने से भी बीमारी ज्यादा होती है । इसीलिए व्यंग्य से वैद्यों को रोगाणाम शारदी माता अर्थात (रोगियों की संख्या बढानेवाला) शरद ऋतु रोगो की माता ही है, ऐसा कहा गया है । इसलिए अगर यह शरद ऋतु अगर अच्छी तरह – सुखरूप – बिना कोई रोग के कोई व्यतीत करता है तो पूरा साल स्वस्थ ही गुजरेगा ऐसा माना जाता है । अतः जीवेम शरदः शतम्  ऐसा आशीर्वाद दिया जाता है ।


शरद ऋतु वातावरण 


आयुर्वेद के अनुसार शरद ऋतु का वातावरण और शरीर स्थिति :

        शरद्-ऋतु में बादल विरल हो जाते हैं, वे बहुत धवल स्वच्छ और सुन्दर होते हैं। चंद्रमा की किरणें अधिक प्रभावशाली, स्वच्छ और स्निग्ध हो जाती हैं और मन को आनन्द प्रदान करती हैं। नदियों, झीलों और तालाबों का जल सूर्यताप व चाँदनी के प्रभाव से स्वच्छ हो जाता है।  

                वनस्पतियों, औषधियों आदि में अम्ल रस की अधिकता पाई जाती है। वर्षा-ऋतु में शरीर को वर्षा और उसकी शीतलता सहन करने का अभ्यास हो जाता है। वर्षा के बाद शरद्-ऋतु में सूर्य अपने पूरे तेज  तथा गर्मी के साथ चमकता है। इस उष्णता के फलस्वरूप वर्षा ऋतु के दौरान शरीर में जमा हुआ पित्त दोष एकदम कुपित हो जाता है। इससे रक्त दूषित हो जाता है। परिणामस्वरूप पित्त और रक्त के रोग, बुखार, पेट की जलन, फोड़े-फुंसियाँ, त्वचा पर चकत्ते, गण्डमाला, खुजली आदि विकार अधिक उत्पन्न होते हैं। विसर्ग काल का मध्य होने से शरीर में बल की स्थिति मध्यम होती है ।


आयुर्वेद अनुसार शरद ऋतु दिनचर्या :

·     भूख लगने पर ही आहार ले और पूर्व में खाया हुआ भोजन पच जाने के बाद मात्रा-पूर्वक सेवन करना चाहिये ।

·     अच्छी तरह भूख लगने पर सम्यक मात्रा में ही खाना उपयोगी है ।

·     कुपित पित्त को शान्त करने के लिए घी सेवन हितकारी है । सब्जी – दल की जोंक मे तेल की जगह घी का इस्तेमाल करे । रात को सोते वक़्त पैरों में घी घिसना चाहिए ।

·     शरद ऋतु मे मधुर ( मीठे ), तिक्त ( कडवे ) और कषाय ( तूरे ) स्वाद का विशेष सेवन करना चाहिए ।

·     मीठे, हल्के, सुपाच्य, शीतल और तिक्त रस वाले खाद्य और पेय पदार्थ विशेष रूप से उपयोगी हैं।

·     अनाज मे शालि चावल, मूँग, गेहूँ, जौ, धान , सामा ( एक प्रकार का अनाज ) लेना चाहिए ।

·     दलहन में चने, तुअर , मुंग, मठ , मसूर, मटर लें सकते है ।

·     उबाला हुआ दूध, दही, मक्खन, घी, मलाई, श्रीखंड ( घर पर बना हुआ ) पाचन शक्ति अनुसार ले सकते है ।

·     सब्जियों में- गोभी, ककोड़ा, (खेखसा), परवल, गिल्की , ग्वारफली, गाजर, मक्के का भुट्टा , तुरई, चौलाई, लौकी, कद्दू, सहजने की फली, सूरन  (जमीकंद), आलू लेना चाइए ।

·     फलों में- अनार, आँवला सिंघाड़ा, मुनक्का और कमलगट्टा लाभकारी हैं।

आँवले को शक्कर के साथ खाना चाहिए।

·     काली द्राक्ष (मुनक्के), सौंफ एवं धनिया को मिलाकर  बनाया गया पेय गर्मी का शमन करता है !

·     ठंडाई के लिए तुलसी के बीज अथवा उशीर  डाला हुआ पानी, आमला शरबत आदि विकल्प भी इस ऋतु के लिए लाभदायक हैं ।

·     मिट्टी की मटकी में शरीर को आवश्यक खनिज मिलते हैं । यह पानी पित्तशामक होता है । मिट्टी से शरीर को आवश्यक खनिज  भी मिलते हैं ।

·     हंसोदक जल : इस ऋतु में जल को दिन के समय सूर्य की किरणों में तथा रात्रि को चंद्रमा की किरणों में रख कर प्रयोग में लाना चाहिए। इस ऋतु में जल अगस्त्य तारे के प्रभाव से पूरी तरह विष व अशुद्धि से रहित हो जाता है और सब दृष्टि से बहुत उपयोगी होता है, इसलिए अमृत के समान माना जाता है। पीने के अतिरिक्त स्नान और तैरने के लिए भी इसी जल का उपयोग करना हितकर है। आचार्य चरक ने इस जल को हंसोदक कहा है। 

हंसोदक जल 


·     इस ऋतु में खिलने वाले फूलों को आभूषणों के रूप में प्रयोग में लाना चाहिए। सुगंधित फूल पित्तशमन का कार्य करते हैं ।

·     वस्त्र सूती, ढीले तथा उजले/श्‍वेत रंग के होने चाहिए ।

·     ऋतु में पित्त का प्रकोप होकर जो बुखार आता है, उसमें एकाध उपवास रखकर धनिया पावडर, चंदन, वाला (खस) एवं सोंठ डालकर उबालकर ठंडा किया हुआ पानी पीना चाहिए । व्यर्थ जल्दबाजी के कारण बुखार उतारने की दवाओं का सेवन न करें अन्यथा पित्त अवम यकृत से संबन्धित नये-नये रोग होते ही रहेंगे। आजकल कई लोगों मे इस बात को होते हमने देखा है । इसके लिए आपके आयुर्वेद विशेषज्ञ से सलाह ले ।

·     शरद ऋतु में स्नान से पहले नियमित रूप से शरीर को नारियल तेल लगाने से त्वचा पर फोडे नहीं होते । गर्मी के कारण अधिक पसीना आने के विकार में भी संपूर्ण शरीर को नारियल तेल लगाना लाभदायक है ।

·     कुपित पित्त और दूषित रक्त को शान्त करने के लिए विरेचन (दस्तावर औषधि) का प्रयोग और रक्त-मोक्षण‘ (दूषित रक्त को निकालने) वाली चिकित्सा आयुर्वेद डॉक्टर की सलाह से करनी चाहिए।

 

शरद ऋतु मे निषेध बाते :

·     शरद ऋतु में अतितीक्ष्ण, अम्ल, उष्ण पदार्थ नहीं खाने चाहिए ।

·     ठूँस-ठूँस कर नहीं खाना चाहिए । भूख लगे बिना भोजन नहीं करना चाहिए।

·     बाजरा, मक्का, उड़द, तिल, सरसों, मट्ठा, इमली, कच्ची कैरी,  पुदीना,  सौंफ, मेथी, लहसुन, बैंगन, करेला, भिंडी, ककड़ी,  हींग, मूँगफली, काली मिर्च आदि शरद ऋतु मे त्याज्य होता है ।

·     तेज मादक द्रव्य, मदिरा, सॉफ्ट ड्रिंक्स, दही और लवण वाले खाद्य पदार्थ अधिक मात्रा में नहीं खाने चाहिए।

·     अधिक व्यायाम तथा सम्भोग भी हानिप्रद हैं।

·     फ्रीज अथवा कुलर का ठंडा पानी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने से त्याज्य है ।

·     दिन में सोना या धूप में देर तक बैठना, रात में देर तक जागना ठीक नहीं होता। शरद ऋतु में हालाँकि धूप सेंकना अच्छा लगता है, किन्तु धूप में बहुत देर तक बैठना स्वास्थ्य के ठीक नहीं होता। 

·     इस मौसम में धूप, ओस और पूर्व की ओर से आने वाली हवाओं से बचना चाहिए।

 

शरद ऋतु के दौरान त्योहार का वैज्ञानिक महत्व :

·     इस ऋतु में पित्तदोष की शांति के लिए ही आयुर्वेद के शास्त्रकारों द्वारा खीर खाने, घी का हलवा खाने तथा श्राद्धकर्म करने का आयोजन किया गया है।

·     शरीर मे पित्त शमन के उद्देश्य से चन्द्रविहार, गरबा नृत्य तथा शरद पूर्णिमा के उत्सव के आयोजन का विधान है।

शरद पूर्णिमा 


·     नवरात्रि के दौरान रात्री जागरण से चंद्र की शीतलत से शरीर मे पीत दोष का संतुलन बना रहेता है । रात्री जागरण अच्छा है किन्तु रात्रिजागरण 12 बजे तक या उससे भी पहेले का ही माना जाना चाहिए । अधिक जागरण से और सुबह एवं दोपहर को सोने से त्रिदोष प्रकुपित होते हैं जिससे स्वास्थ्य बिगड़ता है।

·     श्राद्ध के दिनों में 16 दिन तक दूध, चावल, खीर का सेवन पित्तशामकहोता  है। 

·     हमारे दूरदर्शी ऋषि-मुनियों ने शरद पूनम जैसा त्यौहार भी इस ऋतु में विशेषकर स्वास्थ्य की दृष्टि से ही आयोजित किया है। शरद पूनम के दिन रात्रिजागरण, रात्रिभ्रमण, मनोरंजन आदि का उत्तम पित्तनाशक विहार के रूप में आयुर्वेद ने स्वीकार किया है।

·     शरदपूनम की शीतल रात्रि छत पर चन्द्रमा की किरणों में रखी हुई दूध-पोहे अथवा दूध-चावल की खीर सर्वप्रिय, पित्तशामक, शीतल एवं सात्त्विक आहार है।

·     शरद पूनम की रात्रि में ध्यान, भजन, सत्संग, कीर्तन, चन्द्रदर्शन आदि शारीरिक व मानसिक आरोग्यता के लिए अत्यंत लाभदायक है।

इस प्रकार अगर शरद ऋतु मे हमने आयुर्वेद के इन नियमों का पालन किया तो यकीनन इस ऋतु के दौरान होते रोगों से हम बच पाएंगे । और अगर हमारी शरद ऋतु अच्छे से बीत गयी तो “जीवेम शरदः शतम्” जरूर से सार्थक हो पाएगा । आप सभी को मेरी और से मंगल शुभकामनाए :जीवेत शरद: शतम ....!

- डॉ. जिगर गोर ( आयुर्वेद विशेषज्ञ )

श्री माधव स्मरणम आयुर्वेद क्लीनिक, 

भुज- कच्छ, गुजरात 


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